आपको यह सुनकर यकीन नहीं होगा लेकिन हमेशा बर्फ से ढके रहने वाले इस पौराणिक पर्वत पर जिसने भी चढने की कोशिश की वह पत्थर बन गया। हालांकि कुछ कैलाशों में पर्वत की चोटी तक यात्रा की जाती है। लेकिन यहां ऎसा संभव नहीं है। आज भी इस पर्वत की चोटी तक पहुंचने की कोई हिम्मत नहीं जुटा पाया है।
हिमाचल प्रदेश के चंबा जिला के भरमौर में स्थित मणिमहेश को टरकोईज माउंटेन के नाम से भी पुकारा जाता है, जिसका अर्थ है वैदूर्यमणि या नीलमणि। बताया जा रहा है कि समुद्र तल से 18500 फीट की ऊंचाई पर स्थित मणिमहेश को भगवान शिव और मां पार्वती का निवास स्थान माना जाता है। कहा जाता है कि वर्ष 1968 में भी इस पर्वत पर एक पर्वतारोही ने चढने की कोशिश की लेकिन वह सफल नहीं हुआ।
हालांकि उसके पत्थर बनने के कोई साक्ष्य नहीं मिले हैं। मगर इसके बावजूद आज तक मणिमहेश पर्वत पर चढने की कोई हिम्मत नहीं जुटा पाया है। वहीं, दूसरी ओर स्थानीय लोगों का कहना है कि पांच कैलाशों में से एक मणिमहेश पर्वत पर जिसने भी चढने की कोशिश की वह पत्थर बन गया। मान्यता है कि एक बार गडरिया अपनी भे़डों के साथ मणिमहेश पर्वत की चोटी पर चढ़ने लगा लेकिन जैसे-जैसे वह ऊपर की ओर चलता गया, उसकी सभी भेडें एक-एक करके पत्थर बनती गईं। इसके बाद भी जब गडरिया ऊपर चढने से न रूका तो वह भी शिला में तबदील हो गया। वैसे तो मणिमहेश यात्रा के प्रमाण सृष्टि के आदिकाल से मिलते हैं। लेकिन 520 ईस्वी में भरमौर नरेश मरू वर्मा द्वारा भगवान शिव की पूजा अर्चना के लिए मणिमहेश यात्रा का उल्लेख मिलता है।
उस समय मरू वंश के वशंज राजा साहिल वर्मा (शैल वर्मा) भरमौर के राजा थे। उनकी कोई संतान नहीं थी। एक बार चौरासी योगी ऋषि इनकी राजधानी में पधारे। राजा की विनम्रता और आदर-सत्कार से प्रसन्न हुए इन 84 योगियों के वरदान के फलस्वरूप राजा साहिल वर्मा के दस पुत्र और चम्पावती नाम की एक कन्या को मिलाकर ग्यारह संतान हुई। इस पर राजा ने इन 84 योगियों के सम्मान में भरमौर में 84 मंदिरों के एक समूह का निर्माण कराया, जिनमें मणिमहेश नाम से शिव मंदिर और लक्षणा देवी नाम से एक देवी मंदिर विशेष महत्व रखते हैं। यह पूरा मंदिर समूह उस समय की उच्च कला-संस्कृति का नमूना आज भी पेश करता है।
यह हडसर (प्राचीन नाम हरसर) नामक स्थान से शुरू होती है। यहां से आगे पहाडी मार्ग ही एकमात्र माध्यम है जिसे पैदल चलकर या फिर घोडे-खच्चरों की सवारी द्वारा तय किया जाता है। किसी समय में पैदल यात्रा चंबा से शुरू होती थी। सडक बनने के बाद यात्रा भरमौर से आरंभ होने लगी। लेकिन यहां के स्थानीय ब्राह्मणों साधुओं द्वारा आज भी पारंपरिक छडी यात्रा प्राचीन परंपरा के अनुसार चंबा के ऎतिहासिक लक्ष्मी नारायण मंदिर से ही आरंभ होती है। खास बात यह है कि कैलाश के साथ सरोवर का होना सर्वव्यापक है। तिब्बत में कैलाश के साथ मानसरोवर है तो आदि-कैलाश के साथ पार्वती कुंड और भरमौर में कैलाश के साथ मणिमहेश सरोवर। यहां पर भक्तगण सरोवर के बर्फ से ठंडे जल में स्त्रान करते हैं।
फिर सरोवर के किनारे स्थापित श्वेत पत्थर की शिवलिंग रूपी मूर्ति (जिसे छठी शताब्दी का बताया जाता है) पर अपनी श्रद्धापूर्ण पूजा अर्चना अर्पण करते हैं। कैलाश पर्वत के शिखर के ठीक नीचे बर्फ से घिरा एक छोटा-सा शिखर पिंडी रूप में दृश्यमान होता है। स्थानीय लोगों के अनुसार यह भारी हिमपात होने पर भी हमेशा दिखाई देता है। इसी को श्रद्धालु शिव रूप मानकर नमस्कार करते हैं। इसी प्रकार फागुन मास में प़डने वाली महाशिवरात्रि पर आयोजित मेला भगवान शिव की कैलाश वापसी के उपलक्ष्य में आयोजित किया जाता है। पर्यटन की दृष्टि से भी यह स्थान अत्यधिक मनोरम है।