क्या आपको वो चुनाव याद है जब प्रचार गाड़ियों के पीछे हम ‘बिल्ले’ के लिए दौड़ते थे?

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आयुष द्विवेदी। आजकल चुनाव का समय है, वही चुनाव जिसे लोकतंत्र का पर्व कहा जाता है। सोशल मीडिया पर चुनाव की चर्चा जोरों पर है। तमाम नेताओं का दल बदलने वाला प्रोग्राम भी शुरू हो गया है। राजनीतिक नारे वाहट्सएप और फेसबुक पर लांच होने लगे हैं और छुटभैइये नेता भी अपने अपने काम पर लग गए हैं यानी चुनाव आ गया है। लेकिन हमेशा से चुनाव ऐसा नहीं होता रहा है। पहले चुनाव से अब के चुनाव काफी बदल गए हैं।

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गाड़ियों के पीछे कुछ इस तरह दौड़ लगते थे

आइए आपको थोड़ा अतीत में ले चलते हैं। 90 के दशक में पैदा हुए हमारे जैसे लोगों के लिए चुनाव कुछ अलग ही होता था। आज तो चुनाव हाईटेक हो गया है, फेसबूक, ट्वीटर और व्हाट्सप्प का जमाना है। हालंकि सोशल मीडिया तब भी होता था लेकिन वहां चुनाव नहीं होते थे। हमारे लिए चुनाव मतलब चुनाव प्रचार में आती गाडियां, पार्टीयों के झंडे और लाउडस्पीकर में बजते नारे हुआ करते थे। उस वक्त हम ज्यादा राजनीति नहीं समझते थे। यूं कह ले की राजनीति के हिसाब से अनपढ़ थे। हमारे लिए तो गांव में आयी प्रचार गाड़ी ही ‘चुनाव’ थी। हम और हमारी मित्र मंडली प्रचार गाड़ी के पीछे ऐसे भागते थे जैसे फिल्मों में हीरोइन के पीछे गुंडे भागते हैं। अगर हम लोगो के गांव में गाड़ी रुके बिना चली गई तो अपने साहित्यिक भाषा में उस पार्टी के चुनाव चिन्ह को याद किया जाता था, क्योंकि उस वक्त हम सब पार्टी के नाम नहीं बल्कि उसके चुनाव चिन्ह से ही पहचानते थे जैसे ‘हाथी वाला’, ‘पंजा वाला’ ‘साइकिल वाला’ या ‘कमल वाला’। अगर बिना रुके और बिना पर्चा दिए गाड़ी चली गई तो हमारे मित्र मण्डली में इतना गुस्सा होता था कि अगर हमारा बस चलता तो उस ‘गाड़ी’ वाले की जमानत तक नही बचा पाती। वहीं अगर गाड़ी रुक जाती थी तो हम और हमारी मित्र मंडली इतने हक से झंडा बिल्ला और पर्चा मांगती थी जैसे अगर उन्होंने अगर पर्चा, बिल्ला या टोपी नहीं दिया तो मौकाए वारदात पर उनकी गाड़ी जप्त कर ली जाएगी। हम लोगों में इस बात का भी कॉम्पटीशन रहता था कि किसके पास ज्यादा बिल्ला है, किसके पास ज्यादा रंगीन पर्चा है।

प्रचार सामग्री जो बच्चों द्वारा खूब इकट्ठी की जाती थी

उन दिनों छत पर झड़ा लगाने का भी बहुत तगड़ा कम्पटीशन रहता था। किसका झंडा सबसे ऊंचा है और किसका सबसे रंगीन। गांव के लौड़ों की पूरी टीम शर्ट के ऊपर लाइन से रंग बिरंगे बिल्ले सजाए गांव में ऐसे घूमते जैसे मानो वर्ल्ड कप जीत कर आए हों।

दिल बाग-बाग तब हो जाता जब हमारे दरवाजे पर प्रचार गाड़ी रुक जाती और हम प्रचार करने वालों को पानी पिलाते। दोस्तों के बीच भौकाल टाईट रहता था कि आज हमारे द्वार पर प्रचार वाली गाड़ी रुकी 2–4 गप्पें भी मारी जाती थीं कि “यार! हमारे घर तो एक बोरा बिल्ला, टोपी और पर्चा दे के गए हैं सब”।

प्रचार वाहन

एक वो दौर था जब चुनाव हमारे लिए मस्ती का जरिया हुआ करता था। तब राजनीति को लेकर लोगों में इतनी कट्टरता भी नहीं हुआ करती थी। एक आज का दौर जब चुनाव सोशल मीडिया में सिमट गया है और लोगों में राजनीतिक नफरतें बढ़ गईं है।