गांव की होली से अब वो ‘रंग’ गायब क्यों है??
आयुष द्विवेदी
होली का त्योहार है। थोड़ा अतीत में चलते है कि आज के होली और पहले की होली में क्या अंतर है।आज मैं गांव में हूं और सयोंग से होली के समय हमेशा गांव पर ही रहना होता है। इसलिए मेरा यह अनुभव है कि जिस प्रकार देश और प्रदेश में सरकारें बदलती है ठीक उसी प्रकार गांव के लोग भी बदल रहे है। आर्थिक दृष्टिकोण से देखे तो हर आदमी कमाई के पीछे भाग रहा है लेकिन अगर उसके साथ सामाजिक दृष्टिकोण भी बदल जाए और उसका राजनीतिकरण हो जाए तो सब कुछ बदल जाता है ।
जिस गांव में सभी लोग एकजुट होकर बसंतपंचमी के दिन ही लोग होलिका दहन के लिए ‘सम्मत’ स्थापित कर देते थे तो वही आज स्थिति यह है कि एक दिन पहले सम्मत स्थापित किया जा रहा है। यह सिर्फ एक गांव की बात नही है हर गांव की यही कहानी है । गांव के ही बुजुर्ग कहते है “बाबू परधानी सब कुछ बदल देले बा, गांव के ख़ेमेबाजी में बाट दहले बा बाबू ई हर गांव के कहानी बा।”