2019 के लोकसभा चुनाव में कौन जीतेगा जंग भगवान राम या विष्णु ?

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आयुष द्विवेदी

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गोरखपुर।

चुनाव आते ही देश की राजनीति में कैसे बदलाव आते हैं ये किसी को कुछ बताने की जरूरत नहीं..राजनीति कैसे बदल रही है और चुनाव आते ही सभी मुख्य पार्टी देश के ज्वलंत मुद्दे को छोड़कर धर्म के तरफ रुख कर लिए है।पहले धर्म के मुद्दे पर बीजेपी इसपर अपना अधिकार जमाती थी पर बदलते समय के साथ सारे राजनैतिक दल इसे अब अपने एजेंडा में शामिल कर लिए है ।उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में हार के बाद समाजवादी पार्टी में भी इस मुद्दे पर काफी मंथन हो रहा है नतीजा यह निकल रहा है कि सपा को अब केवल यादव और मुस्लिम गठजोड़ से बहुमत नहीं मिल सकता।सपा के लिए दिक्कत यह है कि बीजेपी हर चुनाव में भगवान राम को उतार देती है और समाजवादी पार्टी के वोट बैंक में दरार डाल देती है ।भगवान राम के नाम पर समाजवादी पार्टी के कुछ वोटर भी पाला बदलने में गुरेज नही करते और इसका असर चुनाव में समाजवादी पार्टी पर देखने को मिलता हैं।इसके अलावा उन गैर मुस्लिम यादव को जोड़ना भी मुश्किल हो जाता है जो राम मंदिर के उम्मीद में बीजेपी से चिपके हुए है।

1992 के बाबरी मस्जिद कांड के बाद समाजवादी पार्टी में नेताजी यानी मुलायम सिंह के समय सपा की हिन्दू विरोधी छवि जो बनी थी वह आज भी लगभग कायम है। यहाँ तक कि लोगो ने मुलायम सिंह यादव को मौलाना तक कहना शुरू कर दिया था।हालांकि मुलायम सिंह ने इसका खूब सियासी फायदा उठाया और एक तरीके से देखा जाए तो मुसलमानों पर सपा का एकाधिकार माने जाने लगा था।खैर अब स्थिति बदल चुकी है क्योंकि समाजवादी पार्टी में ना मुलायम सिंह की चलती है और ना ही उनकी बनाई नीतिया जिसके वजह से मुलायम सिंह यादव खुद पार्टी से नाराज है।हाल ही में सपा के वरिष्ठ नेता शिवपाल सिंह ने पार्टी से अलग होकर अपनी “सेक्युलर मोर्चा पार्टी” का गठन किया जिसपर अभी तक मुलायम सिंह यादव का कोई भी बयान सामने नहीं आया हैं।हालांकि पार्टी में अब अखिलेश की सेकुलर छवि कामय हो गयी है और अब वह बात भी नही रही जो मुलायम सिंह के जमाने में थी। वर्ष 2017 के विधानसभा में अखिलेश को यह एहसास हो गया था कि अब मुस्लिम वोट बैंक पर भी सेंध लग गया है और केवल मुस्लिम,यादव से चुनावी नॉव पार नही हो सकती।शायद तभी तो जिस आजम खान पर मुलायम सिंह भरोसा करते थे और थोक में मुसलमान सपा को वोट करते थे वह मुसलमान आज ना आजम पर भरोसा कर रहा है और ना ही समाजवादी पार्टी..वर्ष 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा के बेहद खराब प्रदर्शन से अखिलेश यादव को शायद दो चीजें सीखने को जरूर मिली हैं।
1- बीजेपी को रोकने के लिए पार्टी को मौलाना छवि से उभरना।
2- उन सभी बिखरे हुए वोटरों को इकट्ठा करना है जो सेकुलर है और बीजेपी के खिलाफ है।
तभी तो यूपी के हुए सभी उपचुनाव में सपा ने बसपा से हाथ मिला कर सभी सीटों पर कब्ज़ा किया था।परन्तु अखिलेश को पता है कि यह बेमेल गठबंधन है और यह गठजोड़ ज्यादा दिन तक चल नही सकता इसलिए अखिलेश चाहते है कि अपने परंपरागत वोटरों को सहेजकर एक नए वोटबैंक को सेंध लगाकर सत्ता की कामयाबी सत्ता पाने का अखिलेश का इरादा है।