संदीप त्रिपाठी
पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर ज़िले की एक विधानसभा सीट है चिल्लूपार. 1985 में ये सीट एकाएक उस वक़्त चर्चा में आई जब हरिशंकर तिवारी नाम के निर्दलीय उम्मीदवार ने जेल की दीवारों के भीतर रहते हुए चुनाव जीता और भारतीय राजनीति में ‘अपराध’ के सीधे प्रवेश का दरवाज़ा खोल दिया.
Advertisement
इसके बाद से ही भारतीय राजनीति में अपराध और राजनीति के गठजोड़ की नहीं, बल्कि अपराध के राजनीतिकरण की बहस शुरू हुई.
हरिशंकर तिवारी के राजनीति में प्रवेश से न सिर्फ़ उनके धुर विरोधी कहे जाने वाले वीरेंद्र प्रताप शाही ने भी लक्ष्मीपुर विधानसभा सीट से जीत हासिल की बल्कि ख़ुद तिवारी भी राजनीति की बुलंदियां छूते चले गए.
हरिशंकर तिवारी ने जब चिल्लूपार विधानसभा सीट से निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर जीत हासिल की, उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह थे और उनका भी इलाक़ा गोरखपुर ही था.
तिवारी बताते हैं कि राजनीति में वो पहले से ही थे, लेकिन चुनाव लड़ने के पीछे मुख्य कारण सरकारी उत्पीड़न था.
बकौल हरिशंकर तिवारी, “कांग्रेस पार्टी में मैं पहले से ही था. पीसीसी का सदस्य था, एआईसीसी का सदस्य था. इंदिरा जी के साथ काम कर चुका था, लेकिन चुनाव कभी नहीं लड़ा था. तत्कालीन राज्य सरकार ने मेरा बहुत उत्पीड़न किया, झूठे मामलों में जेल भेज दिया और उसके बाद ही जनता के प्रेम और दबाव के चलते मुझे चुनाव लड़ना पड़ा.
तिवारी कहते हैं कि ये क्रिया की प्रतिक्रिया थी जो वो चुनावी राजनीति में आए. तिवारी नाम तो नहीं लेते हैं, लेकिन जिस समय की वो घटना बता रहे हैं उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह थे और उनका इशारा ज़ाहिर है, उन्हीं की ओर था.
गोरखपुर के इस इलाक़े में पहले दो गुटों में वर्चस्व की लड़ाई होती थी, लेकिन दोनों गुटों के प्रमुखों के राजनीति में आने के बाद ये लड़ाई राजनीति के कैनवास पर भी लड़ी जाने लगी.
हालांकि साल 1997 में वीरेंद्र शाही की लखनऊ में हुई दिनदहाड़े हत्या ने इस वर्चस्व की लड़ाई पर तो विराम लगाया, लेकिन उसके बाद ये लड़ाई पूर्वांचल के दूसरे गुटों तक फैलते हुए पूर्वांचल से आगे भी चली गई.
वरिष्ट समाज सेवी वशिष्ठ नारायण दुबे बताते हैं कि”दरअसल, वर्चस्व की ये लड़ाई पहले से ही चल रही थी, लेकिन इसे राजनीति का साथ मिलने का सिलसिला यहीं से शुरू होता है. उसके बाद तो पूर्वांचल में माफ़िया और राजनीति का कथित गठजोड़ मुख़्तार अंसारी, ब्रजेश सिंह, योगी आदित्यनाथ, रमाकांत यादव, उमाकांत यादव, धनंजय सिंह के साथ-साथ अतीक अहमद, अभय सिंह, विजय मिश्र और राजा भैया तक पहुंच गया.”
दरअसल, अपराध और राजनीति के इस गठजोड़ के पीछे इन नेताओं को प्रमुख पार्टियों की ओर से मिलने वाला महत्व भी था.
बात यदि हरिशंकर तिवारी की करें तो जेल की सलाखों के पीछे रहकर विधायक बनने के बाद वो न सिर्फ़ लगातार 22 वर्षों तक विधायक रहे, बल्कि साल 1997 से लेकर 2007 तक लगातार मंत्री भी रहे. इस दौरान प्रदेश में सरकारें बदलती रहीं, लेकिन हर पार्टी की सरकार में तिवारी मंत्री बने रहे
शुरुआत कल्याण सिंह के मंत्रिमंडल से हुई और राजनाथ सिंह, मायावती से लेकर मुलायम मंत्रिमंडल में भी उनका नाम पक्का होता रहा. ये बात अलग है कि राजनीति की शुरुआत उन्होंने कांग्रेस पार्टी से की.
उसके बाद तो माफ़िया तत्वों को राजनीतिक दलों में जगह देने की होड़ सी मच गई. चाहे बीजेपी हो या फिर सपा और बसपा, किसी ने भी ऐसे तत्वों को पार्टी में जगह और टिकट देने से कोई गुरेज़ नहीं किया.