जातियों और संप्रदायों में टूटता ‘अखंड भारत’
अगर कोई यह सवाल पूछे कि भारत क्या है तो शायद हमारा जवाब होगा सशक्त, विकासोन्मुख, मज़बूत, साधनसंपन्न, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा कूटनीतिक रूप से वैश्विक पटल पर तेजी से उभरता देश भारत है। बात सही भी है एक अच्छी ग्रोथ रेट, बढ़िया GDP, अच्छे कूटनीतिक संबंध, ज्यादा मैनपॉवर और उभरती अर्थव्यवस्था ये सब मिलकर भारत को एक शक्तिशाली देश के रूप में स्थापित करते हैं।
लेकिन क्या यही पूरा सच है? जवाब होगा शायद नहीं क्योंकि तस्वीर के कई पहलू होते हैं।तो आइये आपको तस्वीर के दूसरे पहलू तरफ लिये चलते हैं और वो पहलू है जातिगत बेड़ियों में बंधे और धर्म के समीकरणों में टूटते भारत की।
भारत विभिन्नताओं का देश है। अनेक भाषाओं में बात करने वाले, विभिन्न जातियों में बटें हुए और विभिन्न संप्रदायों को मानने वाले लोग यहाँ रहते हैं। भारत में सर्वाधिक संख्या हिन्दू धर्मावलम्बियों की है लगभग 80%। इसके बाद इस्लाम यहाँ लगभग 15% के साथ दूसरा सबसे बड़ा संप्रदाय है। कहने के लिये तो यहाँ हिन्दू सर्वाधिक हैं, लेकिन ये हिन्दू 80% हिन्दू के रूप में न रहकर ब्राह्मण, राजपूत, पिछड़े, दलित आदि के रूप में बँटे हुये हैं। देखा जाए तो आम लोगों की अपेक्षा देश के राजनैतिक दल ही लोगों में जातीय और धार्मिक भावनाओं को भड़काते है जिससे वे अपना चुनावी उल्लू सीधा कर सकें। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि हमारी भावनायें आखिर भड़क क्यों उठती हैं ? क्योंकि हम अपने अंदर लोगों के लिए नफ़रत पाले बैठे हैं, क्योंकि कहीं न कहीं हम ऐसी भावनाओं को अपने दिलोदिमाग़ में पाल बैठे हैं जो “वसुधैव कुटुम्बकम” की धारणा रखने वाले भारत देश को कई टुकड़ों में बांटने के लिए पर्याप्त है। जरा सोचिए क्या किसी के जीवन, सम्मान और सामाजिक न्याय का अधिकार केवल इसलिये छीन लिये जायेंगे क्योंकि वह उच्चकुल से संबंध नहीं रखता? विकसित और शहरी इलाकों में तो जातियों के अंतर की खाई थोड़ी बहुत पटती नज़र आती है लेकिन भारत की आत्मा कहे जाने वाले गांवों में कोई सुधार देखने को नहीं मिलता है। इसलिए हम ने भी अपनी सीमा रेखायें निर्धारित कर ली है कि मैं ब्राह्मण हूं, तुम ठाकुर हो, फलां यादव है, फलां दलित हैं और इसी जातिगत अलगाव का फायदा उठाते हैं राजनैतिक दल।